कबीरदास जयंती (Kabirdas Jayanti)
भक्तिकालीन निर्गुण पंथ की संत काव्यधारा के युगपुरुष कबीर का जन्म ज्येष्ठ
माह की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन लहरतारा नामक स्थान पर हुआ था. इसलिए
प्रतिवर्ष इनकी जयंती पूरे देश में इस तिथि को मनाई जाती हैं.
कबीर कर्मकांडों के विरोधी ( Ritualistic Anti Kabir)
कबीर हिन्दू समुदाय के तथा मुस्लिम समुदाय के लोगों के द्वारा धर्म के नाम पर किये
जाने वाले सभी कर्मकांडों के विरोधी थे. मध्यकाल में भारत में मुस्लिम शासकों ने
लोगों पर धर्म परिवर्तन करने के लिए अत्याचार करने शुरू कर दिए थे. जिससे जनता
परेशान थी. ऐसे समय में जनता के पास अपने धर्म की रक्षा करने के लिए केवल एक मात्र
रास्ता ईश्वर की उपासना करना था. जिसका फायदा उस समय के ब्राह्मण उठा रहे थे. मध्यकाल
में ब्राह्मण ने चारों तरफ धर्म के नाम पर अन्धविश्वास फैलाना शुरू कर दिया था.
पंडितों के द्वारा फैलाये अन्धविश्वास और बाह्याडम्बरों का विरोध इस समय में कबीर
ने किया. CLICK HERE TO READ MORE ABOUT वल्लभाचार्य जयंती ...
Happy Kabirdas Jayanti |
समाज सुधारक कबीर (Social Reformer Kabir)
कबीर के गुरु रामानंद थे. जिन्होंने कबीर को निर्गुणपंथ पर चलने की शिक्षा दी
थी. तभी से कबीर निर्गुण पंथ का अनुपालन करने वाले संत बन गये थे. कबीर
ईश्वर के निराकार रूप की उपासना करते थे. उनके लिए धर्म के नाम पर तिलक लगाना,
जनेऊ धारण करना, ईश्वर की प्रतिमा की पूजा करना, रोजा रखना मंदिर या मस्जिद जाना
ये सब दिखावा तथा बाह्याडम्बर था. कबीर एक संत के साथ – साथ समाज सुधारक भी
थे. इन्होने समाज में फैली सती प्रथा, बाल विवाह आदि कुरीतियों का भी विरोध
किया था. कबीर हमेशा हिन्दू आर मुस्लिम समुदाय के लोगों को एकजूट
देखना कहते थे. जिसके लिए उन्होंने जीवन भर प्रयास भी किये थे. कबीर ने समाज
में फैली वर्ण व्यवस्था का भी विरोध किया था तथा स्वयं को सभी जातियों
में सर्वश्रेष्ठ कहने वाले ब्राह्मणों पर अपने के दोहे के द्वारा व्यंग्य
भी किया था. जिसका उल्लेख नीचे किया गया हैं-
दोहा - तु जो बामण – बामणी जाया,
और राह ह्वै क्यों नहीं आया.
साहित्यकार कबीर (Litterateur Kabir)
कबीर पढ़े – लिखे नहीं थे. कबीर ने स्वयं को अक्षरज्ञान न होने पर की बात पर एक दोहा
भी कहा था. “मसि कागद छुयो नहीं कलम गहि नहीं हाथ”. कबीर को अक्षरज्ञान न
होने पर भी उन्हें समाज की समाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों का
भली – भांति ज्ञान था. समाज में कुछ भी अनुचित होता था तो उसका विरोध कबीर अपनी वाणी
से दोहे गाकर करते थे. इनके द्वारा बोले गये समस्त दोहों की रचना इनके शिष्यों
के द्वारा इनके नाम से की जाती थी. कबीर के शिष्यों के द्वारा लिखे गये दोहे “बीजक”
नाम के संग्रह में संकलित हैं. कबीर के दोहों के संग्रह को बाद में इनके शिष्यों
के द्वारा 3 भागों में बाँट दिया गया जिनकी जानकारी नीचे दी गई हैं –
1. सबद
2. रमैनी
3. साखी
कबीरदास जयंती की शुभकामनाएं |
कबीर की भाषा - शैली (Kabir’s Language
– Style)
कबीर की भाषा मूल सधुक्कड़ी थी. इस भाषा
का ही प्रयोग ये अधिक्तर दोहों में करते थे. इसके साथ – साथ कबीर को पंजाबी,
फारसी, बुन्देलखंडी, ब्रजभाषा, तथा खड़ी बोली का भी ज्ञान था. इन सभी भाषाओँ के
कुछ शब्दों का प्रयोग कबीर अपने दोहों में करते थे.
हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर को वाणी का
डिक्टेटर कहते थे. इनके अनुसार कबीर के आगे भाषा लाचार हो जाती थी और कबीर
इसका अपनी अनुसार तोड़ – मडोडकर प्रयोग करते
थे. कबीर भाषा एक फक्कड साधु की भाषा थी. वो अपनी बातों को पूरे अधिकार और डांट
– फटकार के साथ कहते थे.
कबीर की मृत्यु (Kabir’s Death)
कबीर स्वयं को जुलाहा जाती के कहते थे. लेकिन
कबीर किस सम्प्रदाय के थे. इस बात का पता किसी को नहीं था. इसलिए इस बात पर हमेशा
हिन्दू और मुस्लिन समुदाय के लोगों में मतभेद होता था. हिंदी समुदाय के लोग कबीर
को अपना कहते थे. तो वहीँ मुस्लिम समुदाय के लोग कबीर को मुस्लिम समुदाय का बताकर
अपना मानते थे. इसलिए जब कबीर की मृत्यु हुई तो दोनों समुदाय के लोग इनके शव को अपने
साथ ले जाना चाहते थे. मुस्लिम लोग इनके शव को दफनाना चाहते थे तथा हिदू समुदाय के
लोग इनके शव को अग्नि में समर्पित कर इनका अंतिम संस्कार करना चाहते थे. ऐसा कहा –
जाता हैं कि इस बात पर बहस करते – करते दोनों समुदाय में छिना – झपटी होने लग गई
और कबीर के शव पर से सफेद चादर हट गई और वहां पर लोगों को कबीर के शव की जगह फूलों
का ढेर मिला जिसे दोनों सम्प्रदायों के लोगों ने आपस में बाँट लिया.
कबीर जयंती के बारे में अधिक जानने के लिए आप
तुरंत नीचे कमेंट करके जानकारी हासिल कर सकते है.
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